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प्रभाष जोशी कृत ‘हिन्दू होने का धर्म’ (पुस्तक-चर्चा) - संकल्प त्यागी

धर्म की बदलती परिभाषाएँ , राजनीति की गिरती हुई साख और इसी बीच साहित्य के साथ नए पाठकों को जोड़ने और पुराने पाठकों को जोड़े रखने की कोशिशें होती रहनी चाहिए। सांप्रदायिकता पर विचार ज़रूरी है , इसे न तो यूं ही खारिज किया जा सकता है और न यूं ही स्वीकार। पुरानी दबी समस्या के अचानक उग्र हो जाने पर पुरानी किताबें अक्सर फिर से जी उठती हैं। प्रभाष जोशी की पुस्तक ‘ हिन्दू होने का धर्म ’   देश के वर्तमान सामाजिक , सांस्कृतिक और राजनैतिक माहौल में न सिर्फ समस्या का समाधान बताती है बल्कि समस्या की पहचान और उसके मूल को भी उजागर करती है । ये पुस्तक दिसंबर 7 , 1992 से अक्तूबर 27 , 2002 तक के प्रभाष जोशी जी के जनसत्ता में प्रकाशित लेखों का संकलन है जो पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ है। छ: दिसंबर उन्नीस सौ बानवे सिर्फ एक तारीख नहीं बल्कि एक ऐसा विभाजन था जो सदा के लिए नासूर बन गया। बाबरी मस्जिद कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं था , कोई उग्रवाद नहीं था मगर इस वाक़ये से जो पनपा वो ऐसा नासूर है जो   अब कौड़ियों के भाव बहते लहू की इस मंहगाई के ज़माने में