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श्रमजीवी मुस्लिम लोकजीवन की सहजता से साक्षात्कार कराते लोकगीत (पुस्तक चर्चा)

कबीर ने कहा था – ‘ लोका मति के भोरा रे। ’ डॉ. सबीह अफरोज़ अली द्वारा संकलित-सम्पादित मुस्लिम लोकगीतों को पढ़ते हुए बार-बार कबीर की यह बात दिमाग में गूँजती है। इस किताब का तकरीबन हर लोकगीत हमें पूर्वी उत्तर प्रदेश (अधिकांशत: आज़मगढ़ और आसपास) के उस मुलिम समाज से रू-ब-रू कराता है जो अपनी जीवन-शैली में सहज , निष्कपट और बेहद आम है – मूलत: श्रमजीवी। गाँव में है तो खेती-किसानी और शहर-नगर में है तो मज़दूरी में संलग्न इस लोक के सपने , अभिलाषाएं ज़रा से सुख , ज़रा से चैन और जीवन में ज़रा से रस के लिए तड़पते हैं। इस्लाम धर्म का अनुयायी यह समाज अरब का कोई कबीला नहीं है और न ही उसके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को भारत के किसी भी अन्य धर्मावलम्बी समाज से अलग करके देखा-समझा जा सकता है। उसके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन में सिर्फ इस्लाम की ही परम्पराएं और मान्यताएं नहीं हैं बल्कि वह देश में मौजूद रहे सभी सांस्कृतिक तत्वों और परम्पराओं का संवाहक है। यह संग्रह इस बात की भी तस्दीक करता है कि मुस्लिम लोक धर्म-प्रचार की संकार्णता से कहीं ऊपर है और मुस्लिम लोकगीतों की रचना का प्रयोजन इस्लाम का प्रचार करना नहीं है। क