हिंदी पत्रिकाएँ - कथादेश, जुलाई 2014 के बहाने
हिंदी की पत्रिकाओं को पैसे जुटाने से ज्यादा फिक्र अपने काम की करनी चाहिए। पत्रिका का सम्पादक ज़रा समर्पित किस्म का व्यक्ति होना चाहिए। वह पढ़ा-लिखा और भाषा का जानकार हो तो और भी अच्छा। सम्पादन और प्रूफशोधन को अब अलग-अलग करके देखने का समय नहीं रह गया है। पत्रिका की फाइनल कॉपी जो भी व्यक्ति तैयार करे उसे निर्णय लेने में समर्थ भी होना चाहिए। वह सम्पादक/ मालिक का कारिंदा भर न हो। पत्रिकाओं के प्रकाशक-सम्पादकगण जब पैसे की कमी का रोना रोते हैं तब उनकी दीनता देखने लायक होती है , लेकिन कंटेंट के मसले पर वे पाठक की कोई बात सुनने-समझने-मानने को तैयार नहीं होते। ये लोग पूरे भिखारी बने रहना चाहते हैं। आप तो बस भीख दीजिए , उस पैसे से ये दारू पिएँ या चरस , आपको कुछ अख्तियार नहीं। लेकिन प्रगतिशील विचारों की वाहक पत्रिकाओं को पढ़ने वाले कोई धर्मभीरु तो होते नहीं कि आस्था के चलते भीख देते रहेंगे और अगला जनम संवारने की कल्पना में चरस-दारू का व्यापार भी परोक्षत: चलता रहेगा। हाल के वर्षों में पत्रिकाओं के मुद्रण में बरती जा रही लापरवाहियों की तरफ ध्यान द...