हिंदी पत्रिकाएँ - कथादेश, जुलाई 2014 के बहाने
हिंदी की पत्रिकाओं को पैसे जुटाने से ज्यादा
फिक्र अपने काम की करनी चाहिए। पत्रिका का सम्पादक ज़रा समर्पित किस्म का व्यक्ति
होना चाहिए। वह पढ़ा-लिखा और भाषा का जानकार हो तो और भी अच्छा। सम्पादन और
प्रूफशोधन को अब अलग-अलग करके देखने का समय नहीं रह गया है। पत्रिका की फाइनल कॉपी
जो भी व्यक्ति तैयार करे उसे निर्णय लेने में समर्थ भी होना चाहिए। वह सम्पादक/ मालिक
का कारिंदा भर न हो।
पत्रिकाओं के प्रकाशक-सम्पादकगण जब पैसे की कमी
का रोना रोते हैं तब उनकी दीनता देखने लायक होती है, लेकिन कंटेंट के मसले पर वे पाठक की कोई बात
सुनने-समझने-मानने को तैयार नहीं होते। ये लोग पूरे भिखारी बने रहना चाहते हैं। आप
तो बस भीख दीजिए, उस पैसे से ये दारू
पिएँ या चरस, आपको कुछ अख्तियार
नहीं।
कथादेश
का जुलाई अंक देख रहा हूँ। अंतिम आवरण पर संपादक हरिनारायण की अपील छपी है। इसके
दूसरे पैराग्राफ की पहली लाइन देखिए – “लगभग 18 वर्ष पहले मित्रों की सहायता से ही
‘कथादेश’ का पुनर्प्रकाशन
शुरू हुआ था और जिसे तमाम दिक्कतों के चलते इसे अभी तक जारी रखा जा सका है.” - एक
ही लाइन में जिसे और इसे दोनों का प्रयोग। कोढ़ में खाज यह है कि ये अपील नई नहीं
है,
तब की है जब अप्रैल-मई अंकों को मिलाकर
संयुक्तांक निकला था। मतलब कि यह तीसरी बार (अप्रैल-मई 2014 संयुक्तांक, जून 2014 अंक, जुलाई 2014 अंक)
छपी है। इन तीन महीनों में यह गलती क्या किसी ने देखी नहीं होगी। मामला उसी सरकारी
नौकरी वाले दृष्टिकोण का है। जो लोग पत्रिका के लिए छाती पीटते हैं, उन्हें वास्तव में
इससे कोई लगाव ही नहीं है। लगाव है तो इसके मार्फत बनने वाले सम्पर्कों से, इसमें आयोजित बहसों
से अर्जित होने वाली ख्याति से,
नाम से।
कथादेश
के इसी (जुलाई 2014) अंक में मुद्रण/टंकण की तमाम गलतियों को छोड़ते हुए एक खास बात
का ज़िक्र ज़रूरी है। यह बात ज़रा अलग किस्म की है। पृष्ठ 83 पर एक समाचार प्रकाशित हुआ
है ‘पुस्तकें
हमें राह दिखाती हैं : दूधनाथ सिंह’
शीर्षक से। इस समाचार का अंतिम पैराग्राफ है –
“लोकार्पित
पुस्तकें : 1. है तो है,
जनाब एहतराम इस्लाम 2. नींद कागज की तरह,
श्री यश मालवीय,
3. चोंच में आकाश,
आदरणीया पूर्णिमा वर्मन,
4. स्रोत से बहते शब्द,
अजय कुमार पाण्डेय,
5. जीवन की परछाइयाँ,
मनोज कुमार मन,
6. सुकून,
विक्रांत शुक्ल.”
यहाँ
कोई जनाब है,
कोई आदरणीया है,
कोई श्री युक्त है तो ‘श्री’ हीन लोग भी हैं।
क्या सम्पादक ने यह समाचार देखा होगा?
अब यह काम प्रूफरीडर नहीं करेगा,
सम्पादक की जरूरत यहीं अधिक है। इस जिम्मेदारी से सम्पादक बच नहीं सकता।
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