शैतान शासक की आकुल आत्मा का ‘चुपचाप अट्टहास’


किसी देश की जनता के लिए यह जानना हमेशा दिलचस्प (और जरूरी भी) होगा कि उस  देश की सत्ता के शिखर पर बैठा शैतान अगर कभी स्वयं से बतियाता होगा तो कैसे? उसके मन की बात क्या होगी? वह मन की बात नहीं जो वह रेडियो, टेलीविज़न से प्रसारित करवाता है क्योंकि वह तो एक रिकॉर्डेड अभिनय है, यह जनता को खूब पता होता है। अपने छल, प्रपंच, कपट, अत्याचार, अनाचार को स्वयं के सामने वह कैसे और किन शब्दों में जस्टीफाई करता होगा। ज़ुल्म और फ़रेब से भरे अपने दिमाग़ का इस्तेमाल लोगों के दिमाग़ों पर कब्ज़ा करने को प्रतिबद्ध शैतान के एकालाप से लेकर शासक के रूप में जनता के साथ संवाद और विवाद की तीखी छवियां समर्थ कवि लाल्टू ने अपने नए कविता-संग्रह चुपचाप अट्टहास की कविताओं में अंकित की हैं। संग्रह की सभी कविताएं एक ही शृंखला की कड़ियां हैं, शायद इसीलिए कवि ने हर कविता को अलग-अलग शीर्षक न देकर क्रम संख्या के आधार पर रखा है।        

 

इस किताब की भूमिका में नन्दकिशोर आचार्य ने कवि लाल्टू; और इस संग्रह की कविताओं के बारे में बहुत महत्वपूर्ण बात की तरफ ध्यान दिलाया है। वे लिखते हैं – “लाल्टू की कविताई इस बात में है कि उनका काव्य-वाचक पीड़ित नहीं बल्कि पीड़क है; यद्यपि जो कुछ वह कहता है उससे ग्रहीता के मन में उठने वाली पीड़ा का अनुभव उसके प्रति वितृष्णा तथा पीड़क के प्रतिरोध के भावों को ही जगाता है। इसी के कारण इन कविताओं के पाठ का प्रभाव वैसा सपाट नहीं रहता जैसा अधिकांशत: प्रतिरोधात्मक कही जाने वाली कविताओं के साथ हो जाता है, बल्कि पीड़क के मन के गहरे अंधेरे की जटिल संरचना के साक्षात्कार के अनुभव में रूपांतरित हो जाता है और तब उससे गहरे और व्यापक स्तरों पर संघर्ष का भाव बल पाता है और इसी कारण, उसका प्रतिरोध भी मानव-हनन करने वाली सभी ऐतिहासिक विकृतियों का प्रतिरोध बन जाता है।” इस तरह यह संग्रह न केवल मौजूदा राजनीतिक-प्रशासनिक विकृतियों की पहचान करता और उनका प्रतिरोध रचता है बल्कि किसी भी देश-काल की शैतानी हरकतों और उनके परिणामों से हमें सचेत करता है। यह अलग बात है कि इस संग्रह की कविताओं में आए सभी संदर्भ समकालीन भारत के हैं, इसलिए पाठक इसकी पहचान नरेंद्र मोदी के शासन-काल से ही करेंगे। हालांकि कवि ने अपनी यह किताब हत्यारों के अट्टहास के शिकार धरती के हर प्राणी को समर्पित की है, लिहाजा इस संग्रह को सभी मानव-हंता ताकतों के खिलाफ़ कवि के प्रतिरोध के रूप में देखा जाना चाहिए।   

 
कवि के मुताबिक, एक इंसान के शैतान में तब्दील हो जाने के पीछे की वजहों के तौर पर उसकी जिस्मानी और दिमागी जरूरतों के मसले को भी देखा जाना चाहिए। हम जानते ही हैं कि इंसान के इंसान बने रहने के लिए ज़रूरी है कि उसके तन और मन की प्यास बुझती रहे। इस संग्रह के काव्य-वाचक शैतान शासक के मामले में अगर यह हुआ होता तो कदाचित वह राजनीति का रुख भी न करता। एक सामान्य जीवन न जी पाने का अभिशाप उसे असामान्य राजनीति की ओर मोड़ देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि आर.एस.एस. जैसे संगठनों के पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं (प्रचारकों) के दिलो-दिमाग़ में भरे अकूत जहर (नफ़रत) का कारण उनका असामान्य/ अप्राकृतिक जीवन और सामान्य जैविक जरूरतों के लिए प्यासा उनका तन-मन ही है :-      

 

लोग पूछते हैं

कि मैंने किसी से प्यार क्यों नहीं किया

पत्नी से भी नहीं

तो क्या कहूँ उन्हें

इस निर्दयी समाज को क्या पता

कि कैसे चार दर्ज़न साल गुज़ारे मैंने

 

क्या पता कि मैंने कभी

करनी भी थी राजनीति अगर

प्यास बुझ जाती जो मन-तन की। (पृष्ठ 78)

 

इसके अलावा, जैसा कि हम जानते भी हैं, व्यक्ति की उपेक्षा उसे कहीं अधिक आक्रामक बनाती है। यह भी मनोवैज्ञानिक मसला है। समाज में अगर किसी की बात नहीं सुनी जाती है तो जाहिर है वह व्यक्ति स्वयं को उपेक्षित महसूस करेगा और वह उपेक्षा ही उसे महत्वाकांक्षी बनाने का उत्प्रेरक बन जाएगी। [कहानीकार मित्र हेमंत कुमार ने भारत की सवर्ण जातियों की वर्तमान आक्रामकता की वजह बताते हुए मुझे यह बात समझाई थी - अयोध्या में राम मंदिर के लिए वे जातियां क्यों भाजपा के लिए इतना काम आती हैं। क्यों वे जातियां सब कुछ जानकर भी मोदी के साथ बनी रहती हैं। क्योंकि उनकी महत्वाकांक्षा को पूरा करने का अवसर नरेंद्र मोदी उपलब्ध कराते हुए दिखते हैं। मोदी उन उन्मादियों को न केवल सुनते हैं बल्कि खुद उनकी आवाज़ बन जाते हैं।] लाल्टू ने इसी थीसिस को एक कविता के छोटे से हिस्से में इस तरह शब्दबद्ध किया है –

 

तुम्हारे दरवाज़े पर खड़े हैं आदमी

उन से करो बातचीत

सुनो ध्यान से उनके गीत

जिन्हें तुम आज नहीं सुनोगे

उनमें से कल एक और मैं उभरूंगा

जैसे उभरा था एक मैं कल

जब किसी ने न सुनी मेरी चीख़।     (पृष्ठ 99-100)

 
प्रेम के मसले पर इस संग्रह में जो कविताएं हैं, उन सब में शैतान का ख़ौफ़नाक संदेश निहित है। संग्रह की पहली ही कविता में शैतान के जिस चुपचाप अट्टहास का वर्णन है वह प्रेम के विलोम से ही उत्पन्न हुआ है। बिना बंदूक़, तलवार उठाए ही क़त्ल करवाने वाला शासक बताता है कि उसके होंठों से निकले लफ्ज़ ही शैतान के हर पल चुपचाप अट्टहास के लिए काफी हैं, उसके लिए किसी फ़ौज, पुलिस की दरकार नहीं। इतिहास में दर्ज़ होने की ख्वाहिश लिए वह शासक दावा करता है –

 

सदियों बाद लोग मेरे बारे में पढ़ेंगे

कुचली गईं प्यार में बँधी हथेलियाँ

जब निकला मेरे होठों से कोई लफ़्ज़

 

इतिहास-भूगोल और कविता को भी

काली बर्फ़ से ढँकता

सोची-समझी कवायद था

मेरे होंठों से निकलता हर लफ़्ज़

 

शांत चित्त

बंदूक तलवार उठाए बिना

मैंने क़त्ल करवाए

 

फ़ौज पुलिस नहीं होती तो भी

होता मूर्तिमान

प्रेम का विलोम

हर पल चुपचाप

अट्टहास करता शैतान।  (पृष्ठ 9)

 

और यह भी कि ­ - 

  

मैं उस ख़याल की पैदाइश हूँ

जो प्यार का विलोम है

मेरा हर प्रोजेक्ट प्यार के ख़िलाफ़ है

आकाश और धरती के ख़िलाफ़ हूँ

कि ये प्यार को सहारा देते हैं

चिड़ियों को भून मारता हूँ

कि वे तुम्हें प्यार की ओर मोड़ती हैं  (पृष्ठ 36)

 

ज़ाहिर है कि लोगों में नफ़रत फैलाने को कटिबद्ध यह काव्य-वाचक बड़ा ताकतवर शासक है, (संग्रह की दूसरी कविता में) जिसका दावा है कि उसके प्रेम विहीन जीवन में सहस्र सूर्यों की ऊर्जा है जो पल भर में गहनतम अंधकार पैदा कर सकती है। चूँकि वह शासक है इसलिए लोग उससे ही गुहार लगाएंगे, लेकिन उन गुहारों का जवाब उसके कारिंदों के खंजर देंगे –

 

तुम चीखो प्यार प्यार

मन मार करो मुझसे गुहार

एक-एक फूल को बचाने रोओ बार-बार

कोई नहीं सुनेगा ­ यह मेरा मौसम है

दरवाज़े खोलो और स्वागत करो

उनका जो तुम्हारे लिए खंजर लिए खड़े हैं।   (पृष्ठ 12-13)

 

वही ताकतवर काव्य-वाचक अपनी प्रेमिका (या वह लड़की जिसे वह एकतरफा चाहता है) का क्या हाल करेगा, देखिए –

 

जा, वादा करता हूँ

तेरी आँखों की रोशनी पी जाऊँगा

तेरे पीछे लगे रहेंगे मेरे चर

देश भर में से बचा रखी एक टुकड़ा रोशनी के पीछे

तू जहाँ भी जाएगी तुझे इन्फ्रा किरणों में देखता रहूँगा।   (पृष्ठ 57)

 

यहाँ मार्मिक बात यह है कि सारे देश में फैले अंधकार के बीच खुद शैतान के लिए भी एक टुकड़ा रोशनी उसकी प्रेमिका ही है। शैतान को भी इस बात का एहसास इसे शैतान की धमकी से आगे ले जाकर कविता बना देता है। इस एक टुकड़ा रोशनी का अभाव शैतान को अकेलेपन के डर से घेर देता है ­ “अकेले आदमी की अकेली दुनिया। अकेला अकेले से प्रेम करता। अकेला ही झगड़ता। अकेले ही अकेलेपन में हुई घटनाओं की याद दिलाता। अकेले आदमी के सपनों में अकेलापन; डर का बवंडर।” (पृष्ठ 58)     

 

अपने विरोधियों के सुख की वजह न जाने पाने की कसक और अपनी खुशी के फीकेपन की सच्चाई का बोध शैतान शासक को परेशान करता है। यहाँ शैतानी सत्ता-प्रतिष्ठान का प्रतिरोध करने वालों के साथ शैतान का संवाद तीखा होने के बजाय सहानुभूतिपूर्ण बन पड़ा है। यह लाल्टू की कविता की ताकत है जो शैतान के भीतर भी पीड़ित मनुष्य के लिए सहानुभूति के तत्वों की शिनाख़्त करवा ले जाती है -

 

घर लौटते हो

तुम्हारे कंधों पर

दिन भर में इकट्ठी की

दुनिया भर की तकलीफ़ों का बोझ होता है

 

कपड़े उतार लेते हो

थकान नहीं उतरती

घर के लोग तुमसे से भी ज्यादा थके दिखते हैं

 

विरोध-प्रतिरोध में तुम्हारी ज़िंदगी

आधी ख़त्म हो चुकी है

मैं यह देख ख़ुश होता हूँ

पहेली यह कि मेरी ख़ुशी फीकी है

और सुख तुम्हारे पास है।  (पृष्ठ 53)

 

शैतान को यह एहसास भी है कि सच के लिए लड़ने वालों के मुकाबले उसकी स्याह दुनियां कहीं क्षुद्र है और उसका कार्यकाल भी सीमित और छोटा है। इसी एहसास के चलते उसका डर एक आशंका की तरह उसके दिमाग़ में उभरता है –

 

जानता हूँ कि मेरी कायनात तुम्हारे से छोटी है

उसकी अवधि भी सीमित है

कहीं वह वक़्त पास तो नहीं हब मुझ पर

या कि उस पर भारी पड़ जाएगा तुम्हारे सत्य का रथ ? (पृष्ठ 73)

 

सच और फ़रेब, प्यार की थाप और नफ़रत की फुँफकार, अच्छे और बुरे के द्वंद्व की निरंतरता शैतान के इस डर को बनाए रखती है। इस संघर्ष में बने रहना ही इंसान के लिए इकलौता चारा है। इंसान के इस चयन पर शैतान कहता है –

 

ख़ुशी तुम्हारी कि तुम लड़ते हो

मरते हो

मेरी सारी कोशिशों के बावजूद

बिजली की कौंध में चमक उठती हैं तुम्हारी आँखें

तुम्हारे होंठों से निकलता है लफ़्ज़ प्यार

पल भर में जल गई खंडहर हो चुकी वादियाँ हरी हो जाती हैं

उत्सव के ढोल बजने लगते हैं

काले बादलों से घिरी अटारी से देखता हूँ

और फिर एक बार आग की लहरें उड़ेल देता हूँ

तुम्हारा दिल धड़कता है

प्यार की थाप के साथ

मेरी फुँफकार साथ चलती

गुत्थम-गुत्था होते रहते हम तुम।  (पृष्ठ 32)   

 

जनता पर फ़रेब डालने के लिए शैतान शासक मुखौटे इस्तेमाल करता है। कभी गाँधी की बात करता है, कभी बुद्ध की। पीना चाहता है खून, लेकिन दिखाता है उजली मुस्कान। उसका फ़रेब आखिर जनता को सम्मोहित कर ही लेता है। उसका यह तर्क काबिलेग़ौर है कि उसकी कोरी लफ़्फ़ाज़ी से जनता को कल्पना में ही सही, कुछ सुख तो मिलता है –

 

फ़ायदा कुछ तुम्हें भी तो है

कि अंधेरे के इस दौर में

जगमाती है रोशनी तुम्हारे घर

तुम्हें भी यात्राओं का मिलता है सुख

जब कल्पना में ही सही उड़ लेते हो तुम मेरे साथ  (पृष्ठ 43)

 

लेकिन शैतान शासक के अनुयायियों को यह जानना और नोट कर लेना चाहिए कि शैतान कभी इंसान का हितैषी नहीं हो सकता। उससे कोई भी उम्मीद पालना, उसके सपने देखना व्यर्थ है –  

 

अरे जो मेरे लिए सपने देखते हो भूल जाओ मुझे

जब प्यादे मशालें लिए तुम्हारे घर जलाने आएंगे

मैं नहीं कहूँगा उन्हें कि तुम्हें छोड़ दें

नहीं कहूँगा कि तुम मुझे पुकारो

मेरा कोई नहीं है

मैं इंसान नहीं तो कोई इंसान मेरा कैसे होगा।  (पृष्ठ 80) 

 

अलबत्ता शैतान अपने भक्तों-सेवकों को उनके मनपसंद स्वप्नलोक में जरूर ले जाता है - 

 

तुम पढ़े-लिखों की यही मुसीबत है

तुम नहीं समझते कि

हर कोई सपने देखता है

हर कोई सपनों को सच होते देखना चाहता है

जबकि सपनों का अपना लोक है

सच का अपना

जो मेरी सेवा करते हैं

उन्हें मैं उनके ही स्वप्नलोक में ले जा रहा हूँ। (पृष्ठ 72)

 

एक और रोचक तथ्य पर मेरा ध्यान गया। आज के नाम और आज के ग़म के नाम दर्ज़ इस संग्रह की ज्यादातर कविताएं नरेंद्र मोदी से संबंधित हैं। सिर्फ एक कविता में योगी आदित्यनाथ का आत्मकथ्य है जो एक साथ विडम्बना और मनोरंजन दोनों ही रचता है -

 

मूँछ होती थी

काली कच्ची उम्र की

सिर पर उन दिनों के बालों के साथ जमती भली थी

आईना देखता उससे बातें करता था

कहता था कि वह कभी न गिरेगी

वह गिरी भी कटी भी

जब यह वारदात हुई

मैं दिनों तक दाँतों से नाखून काट चबाता रहा

लू में बदन तपाया

बारिश के दिन सड़कों में भीगा

हर सुंदर के असुंदर को अपनाया

इस तरह बना जघन्य

मूँछ फिर कभी खड़ी नहीं हुई

हर सुबह एक नए उस्तरे से उसे मुँड़वाता रहता हूँ

फिर बाँट देता हूँ उस्तरा

गोरक्षकों को। (पृष्ठ 50)

 

अंत में यह, कि हिंदी कविता की एक ख़ास किस्म और शैली से परिचित कराने वाली इस किताब की प्रस्तुति बहुत खूबसूरत है। कागज़, छपाई, आवरण, कीमत आदि तमाम मामलों में नवारुण की यह पेशकश शानदार है। अंधकार और नफ़रत के दौर में प्रतिरोध की कविता का इस तरह बचे रहना एक बड़ी उपलब्धि है। हिंदीपट्टीवासी हर मानवप्रेमी को इसके लिए कवि लाल्टू और प्रकाशक नवारुण का शुक्रगुज़ार होना चाहिए।     

 
पुस्तक : चुपचाप अट्टहास (कविता संग्रह), लेखक : लाल्टू, कुल पृष्ठ : 120, मूल्य : 125 रुपए
प्रकाशक : नवारुण, सी-303, जनसत्ता अपार्टमेंट, सेक्टॅर-9, वसुंधरा, ग़ाज़ियाबाद-201012 (उ.प्र.)

समीक्षक : आलोक कुमार श्रीवास्तव
 

 

    

Comments

thegroup said…
बहुत शुक्रिया आलोक . आपने बहुत गंभीरता से नवारुण के इस प्रकाशन को जो महत्व दिया है उसके लिए आभार छोटा शब्द है . कोशिश रहेगी कि आगामी प्रकाशन भी ऐसे ही निर्मित हों .

Popular posts from this blog

श्रमजीवी मुस्लिम लोकजीवन की सहजता से साक्षात्कार कराते लोकगीत (पुस्तक चर्चा)

राकेश कुमार शंखधर की दो कविताएं