राकेश कुमार शंखधर की दो कविताएं
कभी-कभार
के लेखन को संकोचपूर्वक सामने लाते हुए श्री राकेश कुमार शंखधर ने जो दो कविताएँ हमें
दीं, उन्हें हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। ये कविताएँ हम में से बहुतों की अनुभूति
हैं, लिहाजा इनसे जुड़ना हमें बड़ा सुखद लगता है। विशेषकर ‘गाँव! तुम ज़िंदा रहना’ कविता के अंत में व्यक्त कवि का
संकल्प महानगर में रहने को अभिशप्त हर इंसान दोहराना चाहता है। इसी तरह, ‘माँ’ कविता में आयी एक पंक्ति
‘बंधनों
से जकड़ी हुई पूरी उम्र...’ स्त्री जीवन और उस पर चल रही
समकालीन बहसों में एक सक्रिय हस्तक्षेप के रूप में हमारा ध्यान खींचती है। इन कविताओं को सामने लाने में मणिपुर विश्वविद्यालय
के हिंदी विभाग में अध्यापक और मेरे सहपाठी रहे मित्र अखिलेश शंखधर की पहलकदमी की बड़ी
भूमिका रही। राकेश शंखधर भारतीय स्टेट बैंक में मुख्य प्रबंधक के पद पर कार्यरत हैं
और बेलापुर, नवी मुम्बई में रहते हैं। सम्पर्क:
rk.shankhdhar@sbi.co.in
गाँव ! तुम ज़िंदा रहना
गाँव
!
मैं
लौटूंगा एक दिन अवश्य तुम्हारे पास
और
डाल दूंगा पड़ाव वहीं
किंतु
तब तक तुम ज़िंदा रहना।
तुम
बचाए रखना
मिट्टी
का सोंधापन,
पगडंडी
की महक,
आम
के बौर की सुगंध,
बसंत
ऋतु का राग,
फाल्गुनी
हवा के झोंके
जाड़े
की गुनगुनी धूप
घरों
में साझे चूल्हे में
पकती
हुई रोटियों की महक।
तुम
बचाए रखना
घने
जंगल, खेतों की हरियाली
और
गतिशीलता का संदेश देती हुई
अपने
पास बहती हुई नदी।
भूलने
से बचाना
परम्पराएँ
और उनके गीत।
बचाए
रखना
लोगों
का स्वाभिमान, सारल्य
और
उनके मुखों पर मौलिक कांति।
सूखने
से बचाना
संवेदनाएं
और स्नेह के स्रोत।
शेष
होने से बचाना
लोगों
में अपनेपन की ऊष्मा
बचाना
खंडहर होते हुए
नैतिक
और मानवीय मूल्य
दरकने
से बचाना
मानवीय
रिश्तों को
सुरक्षित
रखना भाईचारा
एक
धरोहर की तरह
और
बचाना
अपना
वैशिष्ट्य
क्योंकि
मुझे तुममें
अपने
बचपन का प्रतिबिम्ब देखना है।
मैं
आऊंगा तुम्हारे पास
तुम्हारे
अपने बीच आकार लेते हुए
सपनों
के संवत्सर के साथ
और
रहूंगा तुम्हारे साथ
जीवनपर्यंत।
माँ
माँ,
मैं
चाहता हूँ कि तुम पर कुछ लिखूँ ...
फुँकनी
से चूल्हे को जलाने की
कोशिश
करती हुई उँगलियों पर,
उससे
उठते हुए काले धुएँ से
झुलसे
हुए चेहरे पर,
तवे
पर सिंकती हुई रोटी पर
लिखूँ
एक कविता...
कभी
खेतों में अनाज बोते
कभी
स्रोतों से पानी लाते
जंगलों
से लकड़ी बीनते, घास काटते
फिर
सिर पर रखे बोझ पर
लिखूँ
एक छंद...
घर
में इधर से उधर
रसोई
से आँगन, आँगन से कमरे
कमरे
से छत के लगाते चक्करों,
घर
को सँवारते, बच्चों को दुलारते हाथों पर
लिखूँ
एक गीत...
पर्वों
पर घर के आँगन में
दहलीज़
पर रंगोली रखती हुई उँगलियों पर
रसोई
में बनते हुए पकवानों की सुगंध पर
लिखूँ
एक गीतिका...
बचपन
से युवावस्था
युवावस्था
से वृद्धावस्था
उम्र-दर-उम्र
अपने कर्तव्यों का
नि:स्वार्थ
पालन करते हुए
तुम्हारे
चेहरे पर आयी झुर्रियों पर
बंधनों
से जकड़ी हुई पूरी उम्र पर
और
समर्पित जीवन पर लिखूँ एक इतिहास...
किंतु
माँ,
मैं
कैसे लिख सकता हूँ तुम पर कुछ भी
क्योंकि
जिसने पूरी सृष्टि को रचा हो
उस
पर कैसे लिख पाऊंगा मैं कुछ भी
शायद
कभी नहीं...
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